
रिपोर्ट= प्रियांशु, नई दिल्ली: आज़ादी के सत्तर वर्ष बाद भी आज फिर दिल्ली जल रही है। हम बिना किसी अपनों कि परवाह किए मुसलसल किसी भी उग्र भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे है। जनजीवन बदहाल हो चुका है, सड़के बंद करवाई जा चुकी है, साम्प्रदायिकता की आड़ में तमाम छोटी – बड़ी दुकानें आग के हवाले कर दी जा रही हैं, कई इलाकों में लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो गया है।
जहां अभी शांति है वहां के लोग अपनी जान बचाने के लिए शहर छोड़ कर गांव की ओर पलायन कर रहे है । दंगो में मरने वाले लोगो की संख्या दहाई का आंकड़ा पार कर चुकी है। जलती हुई राजधानी को देखने के बावजूद क्या हमनें एक दफा भी ठंडे दिमाग़ से ये सोचने की कोशिश की कि आख़िर इसमें नुक़सान किसका होने वाला है, क्योंकि जब ये सारे युद्ध ख़त्म हो जायेंगे तो अंत में अफ़सोस किसे होगा? अपने दूसरे धर्म के जिन पड़ोसी भाइयों पर आज हम जिस शक कि निग़ाह से देख रहे है और उनके साथ बुरा करने की सोच रहे है।
जब ये सारी चीजे समाप्त हो जायेंगी तो क्या हम उनसे नज़रें मिला पायेंगे?
इस जलती हुई आग में जिन-जिन राजनेताओं ने अपने हिस्से का तेल डाला है। क्या उनके परिवार के एक भी सदस्य को इन दंगों से चोट पहुंचेगी ? अबतक इस पूरे घटनक्रम में जान गवाने वाले लोगो के परिजनों की देखभाल करने के लिए कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर या वारिश पठान सामने आएंगे?
नहीं न! जिसने आपको ये सब करने के लिए मजबूर किया है, जिसने आपके हाथों में पत्थर और देसी कट्टे थमाते हुए दंगे के लिए प्रेरित किया है।
अब वो ही आपका साथ नहीं देंगे। फिर आप किसके लिए लड़ रहे है ? आप किनसे रहे है ? क्या उनसे, जिनके यहां आप ईंद में सेवइयां खाने जाते थे ? या फिर उनसे, जिसके साथ आपने होली मनाई थी और जिसने आपको छठ के मौके पर ठेकुआ और दुर्गापूजा में प्रशाद खिलाया था?
वो हम ही थे न जिसने धर्म के आधार पर बनने वाले पाकिस्तान को ठुकरा कर अपने हिंदुस्तान में रहना पसंद किया था। और वो भी शायद हम ही थे जिन्होंने 1947 के दंगों में अपने भाइयों को ना केवल हिफाज़त से रखा था बल्कि उनको नए मुल्क जाने से रोका भी था ये वादा करते हुए की सब ठीक हो जाएगा।
84 में भी हम ही थे जिन्होंने एक दूसरे की हिफाज़त की थी।
फिर आज एक दूसरे के साथ क्यों ऐसे कर रहे है हम? हम क्यों आपस में लड़ रहे है? हमारी लड़ाई तो सरकार से थी न ? हमरी लड़ाई तो व्यवस्था बदलने की थी न?
मेरे भाइयों, इससे पहले कि सदियों से चली आ रही हमारी सांस्कृतिक विरासत मलबों में तब्दील होकर बर्बाद हो जाए,
इससे पहले कि हमारे वतन का अमन-चैन और भाईचारा शहर में लगी आग की लपटों में जल जाए,
इससे पहले कि हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब सड़कों पर बहाई जा रही खून की नदियों में बह जाए,
इससे पहले कि हमारे पुरखों कि तमाम धरोहरें खंडहरों के ढ़ेर में तब्दील हो जाए।
इससे पहले कि आपकी मुठ्ठी में बंद ये नफ़रती पत्थर आपके मासूम हाथों को आपके ही अपनों के खून से लबालब कर दे, बहुत दूर फेंक दीजिए इन पत्थरों को और घर लौट जाईए।
घर लौट जाईए।
1 thought on “सदियों से चली आ रही हमारी सांस्कृतिक विरासत मलबों में तब्दील होकर बर्बाद हो जाए, जलती हुई दिल्ली को बचा लीजिए!”