बिहार मे लंबे समय के बाद फिर से सवर्णो के करवट बदल रही राज्य की राजनीति। आखिर क्यू सारे पार्टियाँ सवर्ण वोटों को लुभाने मे लगी है।

बिहार मे लंबे समय के बाद फिर से सवर्णो के करवट बदल रही राज्य की राजनीति। आखिर क्यू सारे पार्टियाँ सवर्ण वोटों को लुभाने मे लगी है।

Bihar Desh-Videsh Politics

पटना, बिहार की सियासत में 1990 के बाद से ही सभी पार्टियों का फोकस दलित वोट बैंक की तरफ चला गया। ये वो दौर था जब लालू प्रसाद यादव की अगुवाई में जनता दल ने बिहार में अपनी सरकार बनाई। लेकिन इस सरकार के बनते ही कुछ पार्टियों के वोटरों के नए समीकरण बने तो कुछ के बिगड़ गए। अब 31 साल बाद इसी कड़ी में सवर्ण वोट बैंक को सियासी करवट दिलाने के संकेत मिल रहे हैं। खासतौर पर सत्ताधारी JDU और विपक्षी RJD-कांग्रेस के दांव इसी की ओर इशारा कर रहे हैं। लेकिन इन संकेतों से पहले आपको थोड़ा फ्लैश बैक में जाना होगा।

जब कांग्रेस ने गंवाए अपने कैडर सवर्ण वोट

90 के दशक में लालू को समर्थन देने की कीमत कांग्रेस को अपने कैडर वोट की बलि चढ़ाकर चुकानी पड़ी। ये कैडर वोट और कोई नहीं बल्कि लालू के कथित भूराबाल थे। इस वोट बैंक ने कांग्रेस के लालू के साथ जाते ही अपना रुख भी बदल दिया और बीजेपी के साथ चल पड़ी। हालांकि इनमें से कुछ सवर्ण नेता ऐसे भी थे जो कांग्रेस-बीजेपी के बदले आरजेडी में अपना भविष्य देख रहे थे। नरहट के दिवंगत विधायक और पूर्व मंत्री आदित्य सिंह, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद और कभी आरजेडी के खेमे में रहे अखिलेश सिंह जैसे कुछ नाम इसकी बानगी हैं। ये दीगर मसला है कि इनके वोटर सिर्फ इनके विधानसभा या संसदीय क्षेत्र तक ही सिमटे रहे।

जब सवर्ण वोट चला बीजेपी के साथ

90 के दशक में जब कांग्रेस ने लालू से अपना पंजा मिलाया तो सवर्ण वोटरों को अपना भविष्य अंधकार में दिखने लगा। बीजेपी को इसी मौके की तलाश थी। पार्टी के भीष्म पितामह कैलाशपति मिश्र ने इस नाराजगी को समय रहते भांप लिया। इसके बाद चली गई सियासी चालों ने कांग्रेस के कैडर वोटों को बीजेपी का वोट बैंक बना दिया। अधिकांश भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ और राजपूत BJP के साथ हो लिए।

2005 में जब JDU-BJP की अगुवाई वाली NDA ने बिहार में आरजेडी की राबड़ी सरकार को उखाड़ फेंका तो JDU ने भी बीजेपी की राह पर चलते हुए सवर्ण वोट बैंक में सेंध मारी। ज्यादातर सवर्ण और खासतौर पर बाहुबलि माने जाने वाले नेता JDU के पाले में आ गए। इनमें मोकामा से अनंत सिंह, पीरो से सुनील पांडेय और दिनारा से जयकुमार सिंह जैसे नाम भी शामिल थे।

लालू के साथ आकर JDU ने दोहरा दी कांग्रेस वाली गलती

2015 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश ने लालू से हाथ मिलाया तो उन्होंने भी कांग्रेस वाली गलती ही दोहरा दी। अब सवर्ण वोट बैंक फिर से बीजेपी की ओर हसरत भरी निगाहों से देखने लगा। बीजेपी ने फिर इसका फायदा उठाया और इस वोट बैंक को 2020 में सत्ता की चाबी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन इसी दौरान चुनाव के पहले बिहार बीजेपी पर सवर्ण नेताओं जैसे सच्चिदानंद राय, सीपी ठाकुर के मोर्चा खोलने के बाद सवर्ण वोटरों को ये लगने लगा कि यहां भी उनकी कोई कद्र नहीं रही।

बिहार की सियासत में 31 साल बाद घूम रहा सवर्ण चक्र

ऐसा नहीं कि नीतीश ने ललन सिंह को JDU का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर ये दांव सबसे पहले चला। इसमें पहला नंबर खुद सवर्ण विरोधी पार्टी मानी जाने वाली आरजेडी का था। लालू ने बदलती सियासत को सबसे पहले भांपा और जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की कमान देकर पहली चाल चली। 2020 के विधानसभा चुनाव में काफी हद तक ये प्रयोग सफल होता भी दिखा। इस दौरान लालू ने अपनी पार्टी के ब्राह्मण नेता मनोज झा को राज्यसभा भेज इस सियासी चाल पर मुहर लगा दी।

नीतीश को अंदर ही अंदर ये महसूस हो रहा था कि जेडीयू के सांगठनिक बदलाव में उनपर लव-कुश समीकरण के साथ चिपके रहने का ठप्पा लग गया है। नीतीश सवर्ण वोटरों को बीजेपी से दूर जाता देख रहे थे। उन्हें ऐसा लगा कि यही वो मौका है जब अतिपिछड़ों के साथ सवर्णों को भी पाले में लाया जा सकता है। आरसीपी के केंद्र में मंत्री बनते ही नीतीश ने अपनी चाल चली और सवर्ण जाति यानि भूमिहार बिरादरी से आने वाले ललन सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया।

सवर्ण चक्र घूमने से किसको कितना नफा, कितना नुकसान

अब सवाल ये उठता है कि 31 साल बाद घूमता दिख रहा सवर्ण चक्र किस तरफ जाएगा। बिहार के मशहूर पॉलिटिकल एक्सपर्ट और शिक्षाविद् डॉक्टर संजय कुमार कहते हैं कि 1990 से ही सवर्ण वोटर और उनकी प्राथमिकताएं हाशिए पर रहीं। लेकिन समय बदलते के साथ ही अब पार्टियों को इनकी जरूरत महसूस होने लगी है। डॉक्टर संजय के मुताबिक अभी तो सिर्फ नेताओं ने अपना दांव खेला है, सवर्ण वोटरों की चाल तो अभी बाकी ही है। क्योंकि इन्हें भी बखूबी पता है कि अपना वोट कहां देने से वो हाशिए से ऊपर आ सकते हैं।

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