
पटना: जहां विपरीत ध्रुव एक दूसरे की ओर आकर्षित होते है वहीं विपरीत नस्ल के पंक्षी अलग-अलग झुंडों में आशियाना तलाशते हैं। ठीक उसी प्रकार नीतीश और लालू का रिश्ता है। उनका एक साथ आना या एक दूसरे से अलग हो जाना पिछले तीन दशकों से बिहार की राजनैतिक तस्वीर तय करती आ रही है। दोनों में जितनी समानताएं है, उतना ही अंतर है।
लालू और नीतीश दोनों की पहली मुलाकात पटना में कॉलेज के दिनों में हुई। लालू ना केवल उनसे उम्र में तीन साल बड़े थे बल्कि सत्ता के गलियारों में उनका कद तब के नीतीश कुमार से कहीं ज्यादा बड़ा था। समाजवादी विचारधारा के ये दोनों धुरंधर एक साथ जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली कांग्रेस विरोधी आंदोलन का हिस्सा बने थे। इमरजेंसी और आंदोलन के बाद 1977 में इन दोनों छात्र नेताओं ने जनता पार्टी के टिकट से चुनाव लड़ा था। चुकी लालू बड़े नेता थे, उन्हें छपरा लोकसभा सीट से जनता पार्टी ने टिकट दिया , और नीतीश को विधानसभा सीट पर लड़ने का मौका मिला। लालू अपना पहला चुनाव जीत गए लेकिन नीतीश जी को हार का सामना करना पड़ा।
नीतीश दुबारा भी चुनाव हार गए लेकिन 1985 में ये दोनों नेता जीत के साथ विधानसभा पहुंचे। लालू तब तक एक लोकसभा और फिर विधानसभा जितने के बाद एक मंझे हुए राजनेता के तौर पर उभर चुके थे लेकिन नीतीश कि पहचान अब भी लालू यादव के राजनैतिक चेले के रूप में कि जा रही थी। इस बीच साल 1987 में नीतीश बिहार के युवा लोकदल के अध्यक्ष बने और 1989 में उन्हें जनता दल का महासचिव बना दिया गया।
साल 1989 नीतीश के राजनीतिक करियर के लिए काफी अहम था। क्योंकि इसके बाद नीतीश ने बीते पांच साल जमीनी स्तर पर खूब पसीना बहाया था और इसी साल नीतीश नौवीं लोकसभा के लिए चुने गए थे। 1990 का विधानसभा चुनाव आया तब वो कोइरी और कुर्मियों के उभरते हुए नेता के रूप में जाने जाने लगे थे।
1990 में जनता दल 122 सीटों के साथ बिहार विधानसभा में बहुमत में आई और तब उस वक़्त के शिवहर से विधायक रहे रघुनाथ झा की मदद से लालू पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने, और नीतीश कुमार लालू का दाहिना हाथ बने। हालांकि एक महत्वाकांक्षी राजनेता के रूप में नीतीश पूरी ज़िन्दगी लालू का दाहिना हाथ नहीं बनना चाहते थे। और उसी वक़्त उनको साथ मिला जार्ज फर्नांडीस का। जार्ज 1994 में जनता पार्टी से अलग होकर समता पार्टी बना ली थी।
सत्ता में आने के बीते तीन-चार सालों में ही नीतीश समझ चुके थे कि वो दोनों एक ही नाव में सवार होकर बिहार की नईया को पार नहीं करवा सकते है। समता पार्टी ने चुनाव लड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन किया तो नीतीश ने एक राजनीतिक तख्तापलट को भांप लिया और फिर मुख्यमंत्री बनने के लोभ में नीतीश लालू से अलग होकर समता पार्टी का हिस्सा बन गए।
नीतीश अब दूसरी गाड़ी में सवार हो चुके थे । 1999 में जब भाजपा अटल जी के नेतृत्व में सत्ता में आई तो नीतीश रेल मंत्री बना दिए गए। ये उनके राजनैतिक जीवन की पहली सफलता थी जो उनको बिहार के राजनीति में कहीं न कहीं लालू प्रसाद यादव के समानांतर खड़ा करने जा रही थी।
साल 2000 में जब लालू यादव जेल गए तब नीतीश 03 मार्च से 10 मार्च तक 8 दिनों के लिए बिहार के अगले मुख्यमंत्री बने। साल 2005 में नीतीश एक बार फिर मुख्यमंत्री बनें। और अबकी बार पूर्ण बहुमत से बतौर 31 वें मुख्यमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल 24 नवम्बर 2005 से 24 नवम्बर 2010 तक पूरा किया।
2010 में वो फिर सत्ता में आए लेकिन कार्यकाल पूरा होने से ठीक पहले 2014 लोकसभा में मिली करारी हार के कारण इस्तीफ़ा दे दिया।
1994 से 2014 तक के ये दो दशक नीतीश और लालू एक दूसरे के राजनैतिक प्रतिद्वंदी हो चुके थे लेकिन ये चुनावी कामयाबी का ही गणित है कि जो राजद नेताओं के भ्रष्टाचार और सर्वोच्च अदालत द्वारा उनकी सज़ा के लिए सालों तक कोसने के बाद भी, साल 2015 में नीतीश को लालू के क़रीब ले गई और विधानसभा चुनाव में जेपी के ये दोनों सेनापति फिर से साथ आ गए। 22 फ़रवरी 2015 को नीतीश ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए को चुनावी मैदान में धूल चटाते हुए एक बार फिर बिहार की कमान संभाल ली।
हालांकि ये प्रयोग असफल साबित हुआ, और नीतीश जी ने बीस महीने पुरानी बनी सरकार से समर्थन वापस लेते हुए महागठबंधन को छका दिया और कुछ ही घंटों के बाद एनडीए गठबंधन का हिस्सा बन गए। नीतीश जी 22 नवम्बर को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनें और ये उनका पिछले पांच वर्षों में चौथा सपथ ग्रहण था।
ये लेख मैंने इसीलिए लिखा है क्योंकि आज नीतीश जी का जन्मदिन है। और इसी साल अक्टूबर में बिहार विधानसभा चुनाव भी होने है। राजनीति के पंडित ऐसा मानते है कि एनडीए गठबंधन में चल रही तना तनी एक बार फिर नीतीश जी की चुंबकीय महत्वकांक्षा को लालू खेमें में ला सकती है। ख़ैर ये आगे समय की बात होगी कि चुनाव के दौरान नीतीश किस पाले में नज़र आएंगे।