सरकारी रेट 266.50, लेकिन बाजार में 500 तक बिक रही यूरिया की बोरी!

सरकारी रेट 266.50, लेकिन बाजार में 500 तक बिक रही यूरिया की बोरी!

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सरकारी रेट 266.50, लेकिन बाजार में 500 तक बिक रही यूरिया की बोरी!

रमेश ठाकुर के सहयोग से बेतिया से वकीलुर रहमान खान की‌ ब्यूरो रिपोर्ट।

बेतिया (पच्छिम चम्पारण)
सरकार ने किसानों की फसल उत्पादन में सहूलियत देने के लिए यूरिया खाद की कीमत 45 किलो बोरी के लिए 266.50 रुपये तय कर रखी है। लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। ग्रामीण के हांथो बाजारों में यही बोरी 450 से 500 रुपये में बेची जा रही है। दुकानदार ‌सरकारी दर पर यूरिया खाद को नहीं बेच रहे, वो साफ कह रहे हैं – “यूरिया खत्म हो गया है।” ऐसे में गरीब व मध्यम वर्गीय किसान भरी बारिश के मौसम में अपने खेतों के लिए खाद के लिए इधर-उधर भटकने को मजबूर हैं।

 खेत सूख रहे, सरकारी सिस्टम सो रहा 

गांवों से लेकर अनुमंडल स्तर तक किसान परेशान हैं। जिनके पास सीमित साधन हैं, वो मजबूरी में महंगे दाम देकर यूरिया खरीद रहे हैं। और जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनके खेत अब भी खाली पड़े हैं या कमजोर फसलें दम तोड़ रही हैं। यह स्थिति सिर्फ एक इलाके की नहीं, पूरे क्षेत्र में यही हाल है।

दुकानदारों की मनमानी – प्रशासन की चुप्पी

सरकार जहां किसानों को राहत देने की बात करती है, वहीं प्राइवेट दुकानदार खुली लूट पर उतर आए हैं। खाद के अधिक दाम वसूले जा रहे हैं और कोई बिल नहीं दिया जा रहा। कई जगहों पर तो खाद गोदामों में छिपाकर कालाबाजारी की जा रही है। कृषि विभाग, अनुमंडल प्रशासन और जिलाधिकारी कार्यालय इस मुद्दे पर अभी तक पूरी तरह निष्क्रिय नजर आ रहा है।

किसानों की पुकार – अब तो सुनिए सरकार!

किसानों का कहना है कि अगर इसी तरह खाद की कालाबाजारी चलती रही और प्रशासन चुप बैठा रहा, तो उन्हें कर्ज में डूबने से कोई नहीं रोक सकता। बरसात का समय फसल के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है और इस समय खाद न मिलने से खेती चौपट हो जाएगी।

प्रशासन से मांग

1. यूरिया की उपलब्धता की तत्काल जांच कराई जाए।
2. दुकानदारों द्वारा निर्धारित मूल्य से अधिक वसूली पर सख्त कार्रवाई हो।
3. कृषि पदाधिकारी, अनुमंडल अधिकारी व जिलाधिकारी स्वयं निरीक्षण करें।
4. प्रत्येक पंचायत या प्रखंड में यूरिया वितरण की निगरानी समिति बनाई जाए।

किसानों की इस समस्या को लेकर अब तक किसी भी प्रमुख अखबार या टीवी चैनल ने कोई खबर नहीं चलाई है, जबकि यह सीधे-सीधे ग्रामीण अर्थव्यवस्था और अन्नदाताओं के भविष्य से जुड़ा हुआ मामला है।

हमारे इस प्रयास का उद्देश्य सरकार और प्रशासन तक आवाज पहुंचाना है – ताकि अन्नदाता को उसका हक मिले और खेती एक बार फिर मुस्कराए।

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