अमीरुद्दीन तीस दिन रोजा रह कर किया मिसाल कायम, भाईचारे का त्यौहार ईद उल फितर मनाया जाएगा कल।

अमीरुद्दीन तीस दिन रोजा रह कर किया मिसाल कायम, भाईचारे का त्यौहार ईद उल फितर मनाया जाएगा कल।

Bihar East Champaran Ghorasahan National News इंटरनेशनल

Weघोड़ासहन/पूर्वी चंपारण: अभी ईद उल फितर का महीना चल रहा है, और आज अंतिम रोजा इफ्तार होना है कल ईद का त्योहार मनाया जाना है। गौरतलब हैं कि दर्जी मोहला घोड़ासहन निवासी आठ वर्षीय बालक, महमद अमीरुदीन, पिता नसिमुदिन आलम इस भीषण गर्मी की मौसम में धूप से नवजवानों का हलफ सुख जाए लेकिन यह छोटा बालक के अंदर धर्म के प्रीति इतनी सच्ची श्रद्धा हैं  कि पूरे महीनें का रोजा रहकर  अन्य बच्चों में अलख जगाई हैं। ख़ुदा इनपे रहम करम बनाएं रखें।
पूरी दुनिया में अलग-अलग तरह की त्योहार बनाए जाते है। जिसमें से एक त्योहार बकरीद भी है।
इस अवसर पर बाजरों में भीड़ और रौनक होती है। लेकिन  पिछले साल करोंना की वजह से भीड़ कम देखने को मिली है। साथ ही 50 फीसदी क्षमता के साथ त्योहार को बनाया जाने वाला है। आप सभी को पता होगा कि बकरी ईद किस दिन बनाई जाती है, लेकिन आज हम आपको इतिहास और महत्व भी बताने जा रहे है।

बकरीद ईद का इतिहास।

हजरत इब्राहिम को अल्लाह का बंदा माना जाता हैं, जिनकी इबादत पैगम्बर के तौर पर की जाती है। इन्हें इस्लाम मनाने वाले अल्लाह का दर्जा दिया जाता है। एक बार खुदा ने हजरत मुहम्मद साहब का इम्तिहान लेने के लिए आदेश दिया कि हजरत अपनी सबसे अजीज की कुर्बानी देंगे, तभी वे खुश होंगे। हजरत मुहम्मद साहब का सबसे खास बेटा था। वे बेटे की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए।
जब कुर्बानी का समय आया तो हजरत इब्राहिम ने अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली और अपने बेटे की कुर्बानी दी, लेकिन जब आँखों पर से पट्टी हटाई तो बेटा सुरक्षित था। अहम बात ये है कि इब्राहीम के अजीज बकरे की कुर्बानी अल्लाह ने कुबूल की। अल्लाह ने खुस होकर बच्चे की जान बक्श दी। तब से बकरीद की पंरपरा शुरु हो गई।

क्यों मनाई जाती है बकरी ईद।

रजमान के पाक महीने में रोजे रखने के बाद अल्लाह एक दिन अपने बंदों को बख्शीश और इनाम देता है। इसीलिए इस दिन को ईद कहते हैं। बख्शीश और इनाम के इस दिन को ईद-उल-फितर भी कहा जाता है।

कैसे हुई शुरुआत।

पैगंबर मुहम्मद ने सन् 624 ईस्वी में जंग-ए-बदर के बाद हुई थी। पैगंबर हजरत मोहम्मद ने बद्र के युद्ध में जीत हासिल की। इसकी खुशी में ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की नमाज अदा होने लगी। इसके बाद से दान या जकात दिया जाने लगा।

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